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Saturday, 6 July 2013

विचार-श्रंखला : जून-II, 2013

विलासिता, निर्बलता और चाटुकारिता के वातावरण में न तो संस्कृति का उदभव होता है और न ही विकास का।-काका कालेलकर

अच्छी युक्ति से जीवन में हमें कठिन से कठिन समस्याओं का बहुत आसान समाधान मिल जाता है।

जैसे जल से अग्नि को शान्त किया जाता है, वैसे ही ज्ञान से मन को शान्त रखना चाहिए।-वेदव्यास।

दुश्मनी को हम दुश्मनी से नहीं मिटा सकते, प्रेम ही उसे मिटा सकता है।-आचार्य विनोबा भावे।

विचार का चिराग बुझ जाने से आचार अन्धा हो जाता है।

उपकार मानना या न मानना व्यक्तिगत है, लेकिन इसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। किसी के उपकार को न मानना कृतध्नता कहलाता है।

मनुष्य केवल उन्हीं बातों को याद रखता है, जिन्होंने उस पर गम्भीर प्रभाव डाला है, जो उसके लिए महत्वपूर्ण या मार्मिक होती हैं।

सेवा ही वह सीमेंट है जो लोगों को जीवन पर्यंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकती है।

माला फेरने, तिलक लगाने और मन्दिर जाने से धर्म पालन नहीं होता, धर्म का पालन जीवन द्वारा होता है।

अध्यापक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते हैं, वे संस्कारों की जड़ों में खाद देते है और अपने श्रम से सींचकर महापुरुष बनाते हैं।

कुंठा का मूल है कि आप बहुत कुछ तुरन्त करना, सीखना और हासिल करना चाहते हैं।

मनुष्य मन की निर्बलता, उसे सफलता से दूर ले जाती है। सफलता के लिए परिश्रम और दृढ़निश्‍चय की आवश्यकता होती हैं।

सकारात्मक सोच के अन्तर्गत एक सही नजरिया बनाएं। मन की खिड़किया खुली रखें, जिससे बाहर की स्थिति पर नजर रहे।

जीवन उपन्यास की तरह है, जिसके हर पृष्ठ पर कुछ नया इंतजार कर रहा होता है।

स्त्रोत : प्रेसपालिका, 01-16 जून, 2013

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