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Tuesday, 8 November 2011

विचार :

"विवाह वह साहसिक-कार्य है जो कोई बुजदिल पुरुष ही कर सकता है।"

"प्यार अंधा होता है और शादी आँखें खोल देती है।"
"विवाह वह प्रणाली है, जो अकेलापन महसूस किए बिना अकेले जीने की सामर्थ्य प्रदान करती है।"
"सर्कस की तरह विवाह में भी तीन रिंग होते हैं - एंगेजमेंट रिंग, वेडिंग रिंग और सफरिंग।"

"विवाह' और 'विवाद' में केवल एक अक्षर का अन्तर है शायद इसलिए दोनों में इतना भावनात्मक साहचर्य और अपनापन है।"

पत्नी को ख़ुश रखना इस सभ्यता की संभवतः सबसे प्राचीन समस्या है। सभी कालखण्डों में पति अपनी पत्नी को ख़ुश रखने के आधुनिकतम तरीकों का इस्तेमाल करता रहा है और दूसरी ओर पत्नी भी नाराज़ होने की नई-नई तरक़ीबों का ईजाद करती रहती है। एक बार एक कामयाब और संतुष्ट-से दिखाई देनेवाले पति से मैंने पूछा- 'क्यों भाई पत्नी को ख़ुश रखने का उपाय क्या है?' वह नाराज़ होकर बोला- 'यह प्रश्न ही गलत है। यह सवाल यूँ होना चाहिए था कि पत्नी को भी कोई ख़ुश रख सकता है क्या?' उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि "शादी और युद्ध में सिर्फ़ एक अन्तर है कि शादी के बाद आप दुश्मन के बगल में सो सकते हैं।"

शादी : "शादी और प्याज में कोई ख़ास अन्तर नहीं - आनन्द और आँसू साथ-साथ नसीब होते हैं।"

पत्नी-पति के एकांत में संबोधन ऐसे हो सकते हैं जो शायद सार्वजनिक नहीं किए जा सकते हों। हमारे दाम्पत्य में अगर डोर प्रेम, आदर और विश्वास की है तो उससे बने संबोधन भी निश्चित ही सुंदर होंगे।

पति-पत्नी को कोशिश करनी चाहिए कि एकांत में भी एक-दूसरे के लिए उपयोग किए जाने वाले संबोधनों में प्रेम, आदर दोनों झलके। अक्सर पति-पत्नी का एकांत सिर्फ तनाव या वासना इन दो भावों में से किसी एक का केंद्र होकर रह जाता है।

अगर हम एक दूसरे के प्रति एकांत में भी वैसा ही आदर और प्रेम रखें तो रिश्तों में तनाव कभी आ ही नहीं सकता। वरन दाम्पत्य महकने लगता है। हमेशा प्रेम से रहें। जीवन साथी से कठोर लहजे में बात करने से पहले उसकी और खुद की, दोनों की गरिमा का ध्यान रखना जरूरी है।

प्रेम व्यक्ति के जीवन में जब आता है तब उसे बहुत धीरे-धीरे एहसास होता है लेकिन जब जाता है तो अपने पीछे एक खालीपन छोड़ जाता है।

वे पति-पत्नी ही सबसे ज्यादा सुखी रहते हैं जो ना केवल एक-दूसरे को अपना एकांत देते हैं बल्कि कभी-कभी एक-दूसरे की जिम्मेदारियों को भी उठाते हैं। 

पति-पत्नी सिर्फ सहचर ना रहें, जीवन में सहभागी भी बनें। एक-दूसरे के कामों में हाथ बंटाएं, अपने साथी को लक्ष्य तक पहुंचने में मदद करें, कभी ये भी देखने का प्रयास करें कि आपका साथी किस स्थिति में संघर्ष कर रहा है। पति-पत्नी जब सहचर से, जीवन के सहभागी बन जाते हैं, तो रिश्ते में रोज एक नयापन दिखाई देता है।

हमारा भी पहला कर्तव्य है कि हम अपनी क्षमताओं के अनुसार जिम्मेदारी से अपना काम करें। जहां हम लोक हित में आवाज उठा सकते हैं वहां आगे भी आएं।

सफलता की खुशी मनाना अच्छा है, पर सबसे जरूरी है अपनी असफलता से सीख लेना!-बिल गेट्स

लोगों को सार्वजनिक तौर पर बोलने से पहले दस बार सोच लेना चाहिए और सार्वजनिक जगहों पर बयान देने में सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि लोगों की भावनाएं आहत हो सकती हैं।-सुप्रीम कोर्ट (अग्निवेश के मामले में टिप्पणी)

अगर आप सदा स्वयँ की दूसरो के साथ तुलना करते रहते है तो आप अवश्य ही अहंकार अथवा ईर्ष्या के शिकार हो जाएँगे!

हमारी बातें चाहे कितनी भी श्रेष्ट क्यों न हों, परंतु दुनिया हमें हमारे कर्मों के द्वारा ही पहचानती है!

आप अपने अधिकारों के प्रति ही जागरूक न रहें, अपितु इस बात का भी ध्यान रखें की आप सही मार्ग पर हैं या नहीं!

किसी दूसरे व्यक्ति की आलोचना करने से पहले हमें अपने अंदर झाँक कर देख लेना चाहिए!

कभी-कभी हम दूसरों को बदलने के लिए बाध्य कर देते हैं, क्योंकि हम चाहते हैं कि दूसरे लोग वैसे ही बनें, जैसे कि हम उन्हें चाहते हैं! जो किसी भी द्रष्टि से उचित नहीं है!

अहंकार जीवन में आते ही बुद्धि को उल्टा कर देता है। यहीं से लोग अहंकार और इज्जत को एक समझने लगते हैं और भूल जाते हैं कि अहंकार बढ़ने से इज्जत बढ़ती नहीं, बल्कि घट जाती है।

अहंकारी मनुष्य समाज में प्रतिष्ठा भले ही बना ले, लेकिन उसका मनोबल और आत्मविश्वास कम होने लगता है। 

अहंकार जैसे-जैसे कम होगा, हम सरल और विनम्र होते जाएंगे और यहीं से हम दूसरों से अपेक्षा करना छोड़ देंगे। 

जीवन जितना अपेक्षारहित होगा, उतना ही अशांति से दूर होगा।

अहंकारी सारी दुनिया के सामने अपनी ऊर्जा इस बात में खर्च करता है कि लोग जान जाएं ‘मैं कौन हूं।’ इसे सिद्ध करने के लिए वह हर तरह के हथकंडे अपनाता है। जबकि अध्यात्म कहता है - ताकत इस बात में लगाओ कि आप स्वयं जान जाएं कि आप कौन हैं? 

अपनी खासियत, अपनी विशिष्टता, हम भी कुछ हैं, इस भाव के आसपास जीवन भर ताने-बाने बुने जाते हैं। जब मनुष्य इससे संघर्ष करता है तो अहंकार अपनी विदाई के अंतिम क्षणों में विनम्रता का वेश धर लेता है, पर जाना नहीं चाहता। इसको भेजे बिना जीवन का सच्च सुख नहीं मिल सकता।

दुनिया में बड़ा होना है तो छोटा होना आना चाहिए। छोटा होने का अर्थ है विनम्रता। दुनिया जब भी जीती जाएगी, विनम्रता से जीती जाएगी। बड़ा होकर सिर्फ किसी को हराया ही जा सकता है।

मानवीय सुख हमारे परिवारों की प्राचीन मांग है। अधिकांश लोगों की गृहस्थी की शुरुआत इसी से होती है। देह का भान, उसकी तृप्ति और अतृप्ति ही अशांति का कारण बनती है। कई रिश्ते तो घरों में देह से चलकर देह पर ही खत्म हो जाते हैं। शरीर से परे हो ही नहीं पाता परस्पर आत्म समर्पण। अधिक समय दांपत्य जब शरीर पर ही टिकता है तो त्याग की भावना जन्म नहीं ले पाती।

भोग, उसकी पूर्ति और अपेक्षा के आसपास जीवन मंडराने लगता है। फिर शुरू होता है तनाव। केवल शरीर पर टिके रहकर तनाव का निदान नहीं हो सकता। फिर तनाव अपना वंश बढ़ाता है, तब प्रवेश होता है अशांति का। एक-दूसरे के प्रति शंका होने लगती है।

संदेह एक धीमा जहर है घर-परिवार के लिए। परिवार का हर व्यक्ति फिर अपने-अपने अधिकार में, अपने-अपने अधिकार के लिए ही जीने लगता है। दांपत्य में अपेक्षा, संदेह, देह, अधिकार जैसी वृत्तियों से बचने के लिए एक ही उपाय है और वह है प्रेम।

यह प्रेम न तो दहेज में मिलता है, न डिग्री से प्राप्त होता है, इसे कोई तिजोरी भी नहीं उगल पाती, न किसी दवा की शक्ल में बाजार में उपलब्ध है। इसे अपने भीतर जगाने का एक ही तरीका है अपनी सांसों से अपनी चेतना को जोड़कर थोड़ा भीतर उतरने का अभ्यास रोज करें।

हृदय को जब सांसों से चेतना का पवित्र स्पंदन मिलता है तो आप स्वत: प्रेमपूर्ण हो जाते हैं। योग से योगी ही तैयार नहीं होते, प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व भी निर्मित होते हैं, इसीलिए अपने घर में किसी भी सदस्य को दया का पात्र न बनाएं, बल्कि प्रेम का भागीदार बनाएं।

वही परिवार सुखी और समृद्ध हो सकता है जिसका हर सदस्य अपना कर्तव्य पूरी ईमानदारी से निभाता है। यह भी संभव है कि परिवार का कोई सदस्य अपने हिस्से की जिम्मेदारी न निभा पाए ऐसे में दूसरों को धैर्य और उदारता से काम लेना चाहिए। परिवार की खुशहाली के लिए हक पाने के लिए लडऩे की बजाय अपने कर्तव्य को निभाने में ही ध्यान रखना चाहिए।

वही परिवार लम्बे समय तक सुख-समृद्धि के साथ फल-फूल सकता है जिसके सदस्यों के बीच अधिकारों व सुविधाओं की छीना-झपटी होने की बजाय कर्तव्यों को पूरा करने का समर्पण भाव होता है। घर-परिवार में माता-पिता या बड़ों के प्रति क्या कर्तव्य होता है।

भूख का अर्थ है जीवन के प्रति एक तीव्र आवश्यकता। गृहस्थी एक भूख है। अगर जीवन में यह भूख नहीं हो तो गृहस्थी के सारे सुख बेस्वाद हो जाएंगे। गृहस्थी की भूख को बढ़ाने में आपसी संतुलन और प्रेम टॉनिक का काम करते हैं। ये भूख तो बढ़ाते ही हैं, स्वाद भी इन्हीं में निहित है।

इन सात बातों से मजबूत होता है पति-पत्नी का रिश्ता

दाम्पत्य कहते किसे हैं? क्या सिर्फ विवाहित होना या पति-पत्नी का साथ रहना दाम्पत्य कहा जा सकता है। पति-पत्नी के बीच का ऐसा धर्म संबंध जो कर्तव्य और पवित्रता पर आधारित हो। इस संबंध की डोर जितनी कोमल होती है, उतनी ही मजबूत भी। जिंदगी की असल सार्थकता को जानने के लिये धर्म-अध्यात्म के मार्ग पर दो साथी, सहचरों का प्रतिज्ञा बद्ध होकर आगे बढऩा ही दाम्पत्य या वैवाहिक जीवन का मकसद होता है। 

यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तरों पर स्त्री और पुरुष दोनों ही अधूरे होते हैं। दोनों के मिलन से ही अधूरापन भरता है। दोनों की अपूर्णता जब पूर्णता में बदल जाती है तो अध्यात्म के मार्ग पर बढऩा आसान और आंनद पूर्ण हो जाता है। दाम्पत्य की भव्य इमारत जिन आधारों पर टिकी है वे मुख्य रूप से सात हैं।

संयम : यानि समय-यमय पर उठने वाली मानसिक उत्तेजनाओं जैसे- कामवासना, क्रोध, लोभ, अहंकार तथा मोह आदि पर नियंत्रण रखना।

संतुष्टि : यानि एक दूसरे के साथ रहते हुए समय और परिस्थिति के अनुसार जो भी सुख-सुविधा प्राप्त हो जाए उसी में संतोष करना। दोनों एक दूसरे से पूर्णत: संतुष्ट थे।

संतान : दाम्पत्य जीवन में संतान का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। पति-पत्नी के बीच के संबंधों को मधुर और मजबूत बनाने में बच्चों की अहम् भूमिका रहती है।

संवेदनशीलता : पति-पत्नी के रूप में एक दूसरे की भावनाओं का समझना और उनकी कद्र करना। दोनों का बिना कहे-सुने ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाना।

संकल्प : पति-पत्नी के रूप अपने धर्म संबंध को अच्छी तरह निभाने के लिये अपने कर्तव्य को संकल्पपूर्वक पूरा करना। 

सक्षम : सामर्थ्य का होना। दाम्पत्य यानि कि वैवाहिक जीवन को सफलता और खुशहाली से भरा-पूरा बनाने के लिये पति-पत्नी दोनों को शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत होना बहुत ही आवश्यक है। 

समर्पण : दाम्पत्य यानि वैवाहिक जीवन में पति-पत्नी का एक दूसरे के प्रति पूरा समर्पण और त्याग होना भी आवश्यक है। एक-दूसरे की खातिर अपनी कुछ इच्छाओं और आवश्यकताओं को त्याग देना या समझौता कर लेना दाम्पत्य संबंधों को मधुर बनाए रखने के लिये बड़ा ही जरूरी होता है।

अक्सर पति-पत्नी के रिश्ते में तनाव की एक बारीक सी डोर भी होती है। इसमें थोड़ा भी खिंचाव आने पर रिश्ते तन जाते हैं। ज्यादा दबाव दिया जाए तो टूट भी जाते हैं। ये डोर होती है अपेक्षा की। हम एक-दूसरे से जब रिश्ता जोड़ते हैं तो अपनी अपनेक्षाएं भी उसके साथ चिपका देते हैं। रिश्ता कोई भी हो हम उसमें कभी नि:स्वार्थ नहीं रह पाते हैं। हमारा कोई भी रिश्ता निष्काम नहीं होता। 

यह अपेक्षा ही तनाव और बिखराव का कारण बनती है। अपनों से की गई अपेक्षा तो और उपद्रव खड़े करती है। अपनों से अपेक्षा पूरी हो जाए तो शांति नहीं मिलती लेकिन यदि पूरी न हो तो अशांति जरूर ज्यादा हो जाती है। इसीलिए पति-पत्नी और रिश्तेदारों के बीच के संबंध हमेशा खटपट वाले बने रहते हैं क्योंकि हमने इनका आधार अपेक्षा बना लिया है।

हम अपने भीतर पसंद, नापसंद का एक ऐसा आरक्षण कर लेते हैं कि जिसके कारण हम लोगों की अच्छाइयों से वंचित हो जाते हैं। हम जितना दूसरों की अच्छाइयों के निकट जाएंगे उतना ही अपने भीतर शांति पाएंगे।

आपके दाम्पत्य में संतुष्टि का भाव होना चाहिए। जितनी ज्यादा अपेक्षा रखेंगे, उतनी ज्यादा परेशानी और अशांति आपको ही झेलनी पड़ेगी।

अक्सर हम भगवान को सिर्फ दु:ख और परेशानी में ही याद करते हैं। जैसे ही परिस्थितियां हमारे अनुकूल होती हैं, हम भगवान को भूला देते हैं। जीवन में अगर प्रेम का संचार करना है तो उसमें प्रार्थना की उपस्थिति अनिवार्य है। प्रेम में प्रार्थना का भाव शामिल हो जाए तो वह प्रेम अखंड और अजर हो जाता है। 

हम प्रेम के किसी भी रिश्ते में बंधे हों, वहां परमात्मा की प्रार्थना के बिना भावनाओं में प्रभाव उत्पन्न करना संभव नहीं है। इसलिए परमात्मा की प्रार्थना और अपने भीतरी प्रेम को एक कीजिए। जब दोनों एक हो जाएंगे तो हर रिश्ते में प्रेम की मधुर महक को आप महसूस कर सकेंगे।

समझदार इंसान को मालुम होना चाहिए कि वह कितना योग्य है और वह क्या-क्या कुशलता के साथ कर सकता है। जिन कार्यों में हमें महारत हासिल हो वहीं कार्य हमें सफलता दिला सकते हैं।

राजा : आचार्य चाणक्य कहते हैं कि वैसे तो किसी भी राजा के अधीन उसकी सेना, मंत्री और अन्य राजा रहते हैं लेकिन उसका स्वयं का ताकतवर होना भी जरूरी है। यदि कोई राजा स्वयं शक्तिहीन है तो वह किसी पर राज नहीं कर सकता। राजा जितना शक्तिशाली होगा उतना ही अच्छा शासक रहता है। इसीलिए यह जरूरी है कि राजा का बाहुबल से भी शक्तिशाली हो।]

स्त्री : आचार्य चाणक्य कहते हैं किसी भी स्त्री का सौंदर्य और यौवन ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति होती है। यदि कोई स्त्री सुंदर नहीं है लेकिन मधुर व्यवहार वाली है तब भी वह जीवन में कभी भी परेशानियों का सामना नहीं करती है। मधुर व्यवहार से ही स्त्री मान-सम्मान प्राप्त करती हैं।

पत्नी : आचार्य चाणक्य कहते हैं, यदि किसी व्यक्ति की पत्नी हमेशा क्रोध में रहती है, पति को प्रेम नहीं करती है, पतिव्रत धर्म का पालन नहीं कर रही है, हमेशा पति को दुख देती रहती है तो ऐसी पत्नी को तुरंत त्याग देना चाहिए। जो रिश्तेदार, भाई-बहन दुख के समय साथ छोड़ देते हैं उनसे दूर रहने में ही भलाई है। जहां प्रेम का अभाव वहां कोई रिश्ता नहीं रखना चाहिए।

साथ : कभी-कभी रिश्तेदार और मित्र भी आपके बुरे समय में साथ छोड़ देते हैं, ठीक उसी समय पत्नी का साथ व्यक्ति को बड़ी से बड़ी मुश्किल से भी निकाल सकता है। विपरित परिस्थितियों में जिस व्यक्ति की पत्नी भी साथ छोड़ दे तो उसका जीवन निश्चित ही नरक के समान हो जाएगा।
जीवन का निर्माण : समय को नष्ट मत करो, क्योंकि यही वह चीज है, जिससे जीवन का निर्माण हुआ है!-बेनाजमिन फ्रेंकलिन!
आशावादी : आशावादी को हर खतरे में अवसर दीखता है और निराशावादी को हर अवसर में खतरा दीखता है!-विंस्टन चर्चिल!

1 comment:

  1. अच्छे विचार पढवाने के लिये धन्यवाद।

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